३० सितंबर, १९६६
श्रीअर्रावदको एक अप्रकाशित पत्र पढ़कर
''... यद्यपि संत पालको विलक्षण गुहा अनुभूतियां हुई थीं और निश्चय ही उन्हें गहरा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त था (मेरा ख्याल है विस्तृत नहीं, गहरा), मैं यह प्रतिज्ञा नहीं करुंगा कि वे अतिमानसीकृत शरीर (अतिमानसीकृत भौतिक शरीर) की बात कह रहे हैं । शायद अतिमानसिक शरीर, या किसी अपने ही लोक और अपने ही द्रव्यके ज्योतिर्मय शरीरकी बात है जिसे उन्होंने अपने-आपको लपेटे हुए पाया जो इस भौतिक आवेष्टन या मर्त्य शरीरको रद करता था । अन्य बहुत-सी पंक्तियोंकी तरह इन पंक्तियों (कर्ग़ेरथियन्स ५३, ५४) के भी कई अर्थ हो सकते है और इनमें बिलकुल अतिभौतिक अनुभूतिका वर्णन हो सकता है । शरीरके रूपांतरकी बात विभिन्न परंपराओंमें आयी है, लेकिन मुझे कभी इस बातका पूरा विश्वास नहीं हुआ कि उसका मतलब इसी भौतिक द्रव्यके परिवर्तनसे हैं । इन प्रदेशोंमें एक योगी था जो किसी समय इसकी शिक्षा देता था, पर वह आशा करता था कि जब परिवर्तन पूर्ण हो जायगा तो बह प्रकाशमें लुप्त हो जायगा । वैष्णव एक दिव्य शरीरकी बात करते है जो पूर्ण सिद्धि प्राप्त होनेपर इस शरीर- का स्थान ले लेगा । लेकिन यह दिव्य भौतिक शरीर होगा या अति-भौतिक शरीर? लेकिन साथ ही यह माननेमें कोई बाधा नहीं है कि ये सब विचार, अंतर्भास, अनुभूतियां यदि सीधा-सीधा भौतिक रूपांतरका निर्देशन नहीं करते तो उसकी ओर संकेत तो करते ही है ।',
२४.१२.१९३०
अजीब बात है, धुन दिनों मेरे ध्यानोंका विषय भी यही था (जान-बूझकर नहीं, ऊपरसे आरोपित किया गया था), क्योंकि वनस्पतिसे पशु और पशुसे मनुष्य (विशेषकर पशुसे मनुष्य), तककी सारी यात्रामें, रूपमें तात्विक परिवर्तन बहुत ही कम है । सच्चा रूपांतर चेतनाके किसी और ही माध्यमके हस्तक्षेपसे होगा । पशु जीवन और मानव जीवनके सभी भेद
४१ मनके हस्तक्षेपसे आते हैं, परंतु द्रव्य तत्वतः वह-का-वही है और रचना और विधानके उन्हीं नियमोंका अनुसरण करता है । उदाहरणके लिये, गायके गर्भाशयमें बनते हुए बछड़े और मांके गर्भाशयमें रूप लेते हुए बालकमें बहुत फर्क नहीं होता । जो फर्क है वह मनके हस्तक्षेपके कारण होता है । लेकिन अगर हम भौतिक सत्ताको देखे, अर्थात्, ऐसी सत्ताको जो उसी तरह दिखायी देती हों जैसे यह भौतिक शरीर दिखायी देता है, जिसकी घनता इसीके समान हों, उदाहरणके लिये, एक ऐसे शरीरको देखे जिसमें रक्त संचारकी आवश्यकता न हों, जिसमे हड्डियों न हों (विशेष रूपसे यह दो : अस्थिपंजर और रक्त-संचार), तो शरीरकी कल्पना करना बहुत मुश्किल है । और जबतक स्थिति ऐसी है, यह कल्पना की जा सकती है कि रक्त-संचारके बारेमें, हदयकी क्रियाके बारेमें -- यह कल्पना की जा सकतीं है -- हम यह मान सकते हैं कि उनके स्थानपर आत्माकी शक्ति आ जाय, भोजनसे भिन्न अन्य उपायोंसे बल और ऊर्जाका नवीकरण किया जाय, इसकी कल्पना की जा सकती है । त्वेकिन फिर शरीरकी कठोरता, उसका ठोसपन -- यह अस्थिपंजरके सिवा कैसे संभव है?... यह पशुसे मानवतककै रूपांतरकी तुलनामें अनन्तगुना बड़ा रूपांतर होगा । यह मानवसे एक ऐसी सत्ताकी ओर यात्रा होगी जो अव उसे तरह क्रिया नहीं करेगी, जो उसी तरहसे निर्मित नहीं होगी, जो किसी ''ऐसी चीज' का मर्त्य रूप और घनत्व होगी जिसे हम नहीं जानते... । हुमने अभीतक जितनी चीजें भौतिक रूपसे देखी हैं यह उनमेंसे किसीके साथ मिलती- जुलती न होगी; अगर वैज्ञानिकोंने कोई ऐसी चीज पाली है, तो उसके बारेमें मैं नहीं जानती ।
हम यह कल्पना कर सकते है कि प्रकाश या नयी शक्ति कोषाणुओंको एक प्रकारका सहज जीवन और सहज-शक्ति प्रदान करे ।
हां, यही तो मैंने कहा, खाद्य गायब हो सकता है, दरसकी कल्पना की जा सकती है ।
लेकिन सारा शरीर इस शक्तिसे अनुप्राणित हों सकता हैं, उदाहरणके लिये, शरीर सुगम्य रह सकता है । अस्थिपंजरको बनाये रखते हुए भी सुगम्य रह सकता है, बालककी सुनम्यता रख सकता है ।
४२ इसी कारणसे तने बालक खड़ा नहीं रह सकता! वह प्रयास नहीं कर सकता । तो उदाहरणके लिये, अस्थिपंजरका स्थान कौन-सी चीज लेगी?
वही तत्त्व हो सकते है, पर ज्यादा नमनीय, ऐसे तत्व जिनकी दृढ़ता उनके कडेपनसे नहीं, प्रकाशकी शक्तिसे आयेगी, है न?
हा, यह संभव है... । बस, मेरे कहनेका मतलब यह है कि शायद यह चीज बहुत बड़ी संख्यामें नयी जातिके प्राणियोंके द्वारा की जायगी । उदाहरणके लिये, मनुष्यसे इस सत्तातक पहुंचनेके लिये बहुत सारे मध्यवर्ती जीवि होंगे । मुझे यह लंबी कूद बहुत बड़ी लगती है, समझे?
मैं' भली-भांति ऐसी सत्ताकी कल्पना कर सकती हू जो आध्यात्मिक शक्ति, अपनी आन तरिक सत्ताकी शक्तिद्वारा अपने-आपको नया करनेके लिये आवश्यक शक्तियोंका आत्मसात् कर सके और हमेशा युवा रहे । यह कल्पना भली-भांति की जा सकती है, आवश्यकता हों तो रूप बदलने लायक नमनीयता भी आ सकती हैं; लेकिन इस रचना-पद्धतिका तुरन्त लोप --दूसरेमें तुरंत बदल जाना... लगता है इसमें' कई कदमोंकी जरूरत होगी... ।
स्पष्ट है कि जबतक कोई विशेष घटना न हों (जिसे हम ''चमत्कार'' कहनेके लिये बाधित है, क्योंकि हम यह नहीं समझते कि यह कैसे हुई), तबतक हमारे जैसा शरीर एक ऐसे शरीरमें कैसे बदल सकता है जो बिना किसी भौतिक सहारेके पूरी तरह उच्चतर शक्तिसे निर्मित और परिचालित हों ' यह (माताजी अपनी त्वचाको उंगलियोंसे पकड़ती हैं), यह उस दूसरी चीजमें कैसे बदल सकती है?.. यह असंभव प्रतीत होता है ।
यह चमत्कार लगता है परंतु..
हां, अपने सारे अनुभवोमें भोजनकी आवश्यकता न रहनेकी संभवनाको समझ सकती न, इस सारी प्रक्रियाका गायब ते जाना (उदाहरणके लिये, आत्मसात् करनेके तरीकेका बदलना संभव है), परंतु ढांचेको कैसे बदला जाय?
लेकिन यह मुझे असंभव नहीं लगता ।
यह तुम्हें असंभव नस्ली लगता?
४३ रहीं, शायद यह कल्पना हो, पर मैं भली-भांति यह कल्पना कर सकता हू कि कोई आध्यात्मिक शक्ति शरीरमें प्रवेश करे और एक प्रकारकी ज्योतिर्मय ऋर्ति पैदा करे और अचानक सब कुछ फूलकी तरह खिल उठे । यह शरीर स्वयं अपनी ओर खुलकर कांतिमय, नमनीय और ज्योतिर्मय बन जाय ।
लोचदार, नमनीय, हां, इसकी कल्पना की जा सकती है । यह नमनीय बन सकता है, यानी, रूप अबके जैसा सुदृढ़ नहीं होगा, हंस सबकी कल्पना की जा सकती है, परंतु
लेकिन मैं इसे एक प्रकारके ज्योतिर्मय प्रस्फुटनके रूपमें भली- भांति देख सकता हूं : प्रकाशमें यह शक्ति अवश्य होगी और वह बर्तमान ढांचेको किसी प्रकार नष्ट नहीं करता ।
लेकिन दिखायी देगा? हम. उसे छू सकेंगे?
हां, मात्र उद्घाटन है । जो बंद था वह फुलकी भांति खिलता है । बस इतना ही, लेकिन फिर भी फुलकी संरचना हमेशा वही है; मात्र वह पूरी तरह खुल गया है और ज्योतिर्मय है, है न?
(माताजी अपना सिर हिलाती है और कुछ देर चुप रहती है) मुझे अनुभव नहीं है, मैं रहीं जानती ।
मुझे पूरा विश्वास है (मुझे ऐसे अनुभव हों चुके है जिन्हेंने इस बातको प्रमाणित किया है) कि इस शरीरके जीवन -- वह जीवन जो इसे हिलाता- डुलाता और बदलता है -- के स्थानपर एक शक्ति आ सकती है, यानी, एक प्रकारकी अमरता पैदा कोई जा सकती है और जीर्णता भी गायब हो सकती है । ये दो चीजें संभव है. जीवनी शक्ति आ सकती है और जीर्ण-शीर्णता जा सकती है । और यह आ सकती है मनोवैज्ञानिक ढंगसे, भागवत आवेशके प्रति पूर्ण आज्ञाकारितासे । इससे व्यक्ति इस योग्य बनता है कि हर क्षण जो कुछ करना चाहिये उसे करनेकी शक्ति मिलती रहे -- यह सब, यह सब, यह निश्चिति है, यह कोई आशा नहीं है, यह कल्पना नहीं है, यह निश्चिति है । हां, पहने शिक्षित करना होगा, धीरे-धीरे रूपांतरित करना होगा, अपनी आदतें बदलनी होगी । यह
४४ संभव है, यह सब संभव है । लेकिन अस्थि-पजरकी आवश्यकताको बदलनेमें ही कितना समय लग जायगा (पहले हम इसी समस्याको लें)? मुझे न्ठगता है कि यह मामला अभी बहुत दूर है । यानी, बहुत-सी बीचकी अवस्थाओंकी जरूरत होगी । श्रीअरविंदने कहा हुए कि जीवनको अनिश्चित रूपमें लंवाया जा सकता है । हां, यह हो सकता है । लेकिन अभीतक हम किसी ऐसी चीजसे नहीं बने हैं जो विलयन और विलयनकी आवश्यकतासे पूरी तरह बच निकले । हड्डियों, बहुत टिकाऊ है । अगर अनुकूल परिस्थितियां हों तो वे हजार वर्ष मी रह सकतीं है । यह तो मानी हुई बात है लेकिन इसका अर्थ ''सिद्धान्त''में अमरता नहीं है । तुम मेरा मतलब समझे?
नहीं, आपको लगता है कि यह कोई अ-भौतिक द्रव्य होना चाहिये?
मुझे नहीं मालूम यह अ-भौतिक है या नहीं, लेकिन यह ऐसा भौतिक है जिसे मैं नहीं जानती! और: यह ऐसा द्रव्य नहीं है जिसे हम अब जानते है । कम-से-कम यह रचना तो नहीं, जिसे हम अभीतक जानते है ।
मैं ठीक नहीं कह सकता लेकिन यह होना चाहिये कोई भौतिक शरीर (जैसा कि श्रीअर्रावंदने कहा है), मुझे लगता है (पर शायद यह दिवा स्वप्न हो) कि, उदाहरणके लिये, यह कमलकी कलीकी तरह हो । हमारा वर्तमान शरीर कमलकी कलीकी तरह है, बहुत छोटा, बंद और कठोर लेकिन कली खिलती है, खिलकर फूल बन जाती है ।
हां, वत्स, लेकिन यह
यह प्रकाश इन तत्वोंको लेकर क्या नहीं कर सकता? ये वही चीजें है, वही तत्व लेकिन बदले हुए रूपमें ।
लेकिन वनस्पति अमर नहीं होती ।
नहीं, यह तो केवल तुलना थी ।
बिल्कुल ठीक!
४५ यही तो प्रश्न है । सतत परिवर्तन, मैं कल्पना करती हू, मैं ऐसे फूल- की मी कल्पना कर सकती हू जो कभी न मुरझाये; लेकिन अमरताका यह तत्व... यानी, सार रूपमें एक ऐसा जीवन जो अपने-आपको नया करते रहनेकी आवश्यकतासे मुक्त हों. वह शाश्वत शक्ति हों सकती है जो अपने-आपको सीधे सतत रूपमें प्रकट करती रहती है, पर साथ ही उसे यह, भौतिक शरीर भी होना चाहिये ( माताजी उंगलियोंसे त्वचाको छूती हैं) ।
मैं उत्तरोत्तर परिवर्तनकी बात भली-भांति समझ सकती हू और इस पदार्थका कुछ ऐसा रूप बन सकता है जो अपने-आपको अंदरसे बाहरकी ओर सतत नूतन करता रहे और यही अमरता होगी, लेकिन मुझे सुगता है कि अभी जो है, हम जैसे हैं, और जीवनके इस दूसरे रूपके बीच बहुत- सी अवस्थाए होनी चाहिये । हां तो, ये कोषाणु, जिन्हें इतनी चेतना और इतना अनुभव प्राप्त है, उदाहरणके लिये, अगर तुम उनसे पूछ : ''क्या कोई ऐसी चीज है जो तुम नहीं कर सकते?'' वे पूरी सचाईके साथ उत्तर देंगे. ''नहीं, जो कुछ प्रभु चाहे, उसे मैं कर सकती हू । '' उनकी चेतनाकी यह अवस्था है । परंतु बाह्य रूपमें चीज उलटी है । व्यक्तिगत अनुभव यह है : मैं जो कुछ भगवान की उपस्थितिमें करती हू, बिना प्रयासके, बिना कठिनाईके, बिना थकानके, बिना किसी क्षतिके कर लेती मंच? ( माताजी एक विशाल सामंजस्यपूर्ण लय बनाती हैं) । लेकिन अभी यह बाहरके सनी प्रभावोंके प्रति खुला हुआ है और शरीरको ऐसी चीजें करनी पड़ती हैं जो सीधी परम पुरुषकी प्रेरणाकी अभिव्यक्ति नहीं हैं और गिरागाम स्वरूप थकान, रगड़.. । अतः, एक ऐसे जगत् में जो घिरती नहीं है, लटका हुआ अतिमानसिक शरीर । यह वह नहीं है!
नहीं ।
किसी ऐसी चीजकी जरूरत है जो छूतका प्रतिरोध कर सकें । मनुष्य पशुकी छूतका प्रतिरोध नहीं कर सकता वह उसके हमेशा संपर्क रहता है । इसलिये वह प्रतिरोध नहीं कर सकता । तो, यह सत्ता कैसे प्रति- रोध करेगी?... ऐसा लगता है कि लंबे समयतक -- काफी लंबे समय- तक -- वह छूतके नियमोंके अधीन रहेगी ।
मैं नहीं जानता, लेकिन यह मुझे असंभव नहीं लगता । नहीं? ४६ मुझे लगता है कि ज्योतिकी शक्ति हो तो उसे कौन छू सकता है?
लेकिन सारी धुनिया गायब हो जायगी! ऐसी बात है, है न?
जब तत् आये, जब प्रभु हों तो हजारमें एक भी ऐसा नहीं है जो डर न जायगा । और वह भी बुद्धिमें नहीं, विचारमें नहीं, ऐसे : इस द्रव्यमें । तव यह स्वीकार करते हुए, यह मानते हुए कि बात ऐसी है, कि सत्ता परम शक्ति, परम प्रकाशता घन रूप और अभिव्यक्ति, एक सूत्र है -- तब क्या होगा?
हां तो, यही तो सारी समस्या है ।
हां
मैं स्वयं रूपांतरकी कोई कठिनाई नहीं देखता, मुझे लगता है है कि यह संसारकी कठिनाई है ।
अगर हर चीज साथ-ही-साथ रूपांतरित की जा सकती तो वह ठीक होता, लेकिन प्रत्यक्ष रूपमें ऐसा नहीं है । और अगर एक सत्ता अकेली ही रूपांतरित हो जाय तो
हां, शायद वह असह्य हो ।
हां ।
मुझे लगता है (यह एक प्रकारका संवेदन-सा है), कि मध्यवर्ती अवस्थाए होनी चाहिये।
और जब तुम देखते हों कि मनुष्यको अपना अस्तित्व बनाये रखनेके लिये सारी प्रकृतिके विरुद्ध लड़ना पड़ा, तो तुम्हें लगता है कि वे सत्ताएं जो उन्हें समझ सकेंगे, उनकी सहायता करेगी, उनके साथ उनका संबंध भक्ति, आसक्ति और सेवाका होगा, जैसा पशुओंका मनुष्योंके साथ है । लेकिन जिन्हें उनके साथ प्रेम न होगा... वे भयानक सत्ताएं होगी । मुझे याद है, एक बार मुझे इन नयी सत्ताओंके खतरनाक स्थितिका अंतर्दर्शन हुआ था और मैंने कहा था (यह १९५६ के अतिमानसिक अवतरणसे पहलेकी बात है), मैंने कहा था ''अतिमानस पहले-पहल अपने शक्ति-
४७ रूपमें प्रकट होगा, क्योंकि सत्ताओंके सुरक्षाकी दृष्टिसे यह अनिवार्य होगा 1 '' और वास्तवमें पहले शक्तिका ही अवतरण हुआ -- शक्ति और प्रकाश । ऐसा प्रकाश जो ज्ञान और शक्ति देता है ।
यह एक ऐसी चीज है जिसे मैं अधिकाधिक अनुभव कर रही हू : मध्य- वर्ती अवधियोंकी आवश्यकता.. यह बिलकुल स्पष्ट है कि कोई चीज होने- की प्रक्रियामें है । लेकिन यह ''ऐसी चीज'' नहीं है जिसे देखा जा चुका हो, जिसका पूर्वदर्शन हो चुका हो और जो परिणति होगी. यह शायद परिणति नहीं, आनेवाली अवस्थाओंमेंसे एक होगी ।
श्रीअरविंदने भी कहा है कि सबसे पहले जीवनको अपने संकल्पके अनु- सार लंबा करनेकी शक्ति आयेगी (बात इससे बहुत अधिक सूक्ष्म और अद्भुत है), लेकिन यह, यह चेतनाकी एक स्थिति है जो प्रतिष्ठित की जा रही है : यह परम प्रभुके साथ एक प्रकारका संबंध, एक नित्य स्थिर संपर्क है । यह घिसाई और क्षतिके भावका उन्मूलन करके उसकी जगह असाधारण लचीलेपन और असाधारण सुनम्यताको लाता है । लेकिन सहज अमरताकी स्थिति संभव नहीं है -- कम-से-कम अभी तो समित्र नहीं है । इस ढांचेको इससे भिन्न किसी चीजमें बदलना होगा और जैसे चीजें हों रही हैं किसी और चीजमें बदलते बहुत समय लगेगा । हों सकता है कि भ्तकालकी अपेक्षा अब ज्यादा तेजीसे हों । अगर हम यह मान भी लें कि गति बहुत तेज हों रही है, तो भी (हमारी समयकी वर्तमान धारणाके अनुसार), उसमें समय लगेगा । और इसके अतिरिक्त, ध्यान देने योग्य बात यह है कि यदि व्यक्ति चेतनाकी उस अवस्थामें रहना चाहे जहां अपव्ययका अस्तित्व नहीं है, उसे अपने समयके भावको बदलना होगा : तब तुम्हें ऐसी अवस्थामें जाना होगा जहां समयकी वही वास्तविकता नहीं रह जाती । यह एक और चीज है । यह बहुत विशेष है, यह एक असंख्य वर्तमान है । यह पहलेसे सोचनेकी आदत, या जो होनेवाला है उसका पूर्वदर्शन, यह भी मार्गका रोड़ा है; यह मत्ताके पुराने ढंगके साथ चिपका रहता है ।
इतनी सारी, इतनी सारी आदतें बदलनी है ।
संपूर्ण सिद्धि तभी होगी जब व्यक्ति सहज रूपमें दिव्य हो सकें । ओह! सहज रूपसे दिव्य होना, यह देखनेके लिये मुडनातक नहीं कि हम दिव्य हो गये हैं या नहीं, उस अवस्थाको पार कर लेना जिसमें व्यक्ति दिव्य बनना चाहता है ।
४८ |